SHOW / EPISODE

Rashmirathi Shasht Sarg part -1 रश्मीरथी षष्ठ सर्ग-भाग १ by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra

Season 1 | Episode 9
9m | Sep 30, 2021

नरता कहते हैं जिसे, सत्तव

क्या वह केवल लड़ने में है ?

पौरूष क्या केवल उठा खड्ग

मारने और मरने में है ?

तब उस गुण को क्या कहें

मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?

लेकिन, तक भी मारता नहीं,

वह स्वंय विश्व-हित मरता है।


है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित

जो करता है प्राण हरण ?

या सबकी जान बचाने को

देता है जो अपना जीवन ?

चुनता आया जय-कमल आज तक

विजयी सदा कृपाणों से,

पर, आह निकलती ही आयी

हर बार मनुज के प्राणों से।


आकुल अन्तर की आह मनुज की

इस चिन्ता से भरी हुई,

इस तरह रहेगी मानवता

कब तक मनुष्य से डरी हुई ?

पाशविक वेग की लहर लहू में

कब तक धूम मचायेगी ?

कब तक मनुष्यता पशुता के

आगे यों झुकती जायेगी ?


यह ज़हर ने छोड़ेगा उभार ?

अंगार न क्या बूझ पायेंगे ?

हम इसी तरह क्या हाय, सदा

पशु के पशु ही रह जायेंगे ?

किसका सिंगार ? किसकी सेवा ?

नर का ही जब कल्याण नहीं ?

किसके विकास की कथा ? जनों के

ही रक्षित जब प्राण नहीं ?


इस विस्मय का क्या समाधान ?

रह-रह कर यह क्या होता है ?

जो है अग्रणी वही सबसे

आगे बढ़ धीरज खोता है।

फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार

सबको बेचैन बनाती है,

नीचे कर क्षीण मनुजता को

ऊपर पशुत्व को लाती है।


हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड

लघु है, अब भी कुछ रीता है,

वय अधिक आज तक व्यालों के

पालन-पोषण में बीता है।

ये व्याल नहीं चाहते, मनुज

भीतर का सुधाकुण्ड खोले,

जब ज़हर सभी के मुख में हो

तब वह मीठी बोली बोले। 


थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का

मन शीतल कर सकती है,

बाहर की अगर नहीं, पीड़ा

भीतर की तो हर सकती है।

लेकिन धीरता किसे ? अपने

सच्चे स्वरूप का ध्यान करे,

जब ज़हर वायु में उड़ता हो

पीयूष-विन्दू का पान करे।


पाण्डव यदि पाँच ग्राम

लेकर सुख से रह सकते थे,

तो विश्व-शान्ति के लिए दुःख

कुछ और न क्या कह सकते थे ?

सुन कुटिल वचन दुर्योधन का

केशव न क्यों यह का नहीं-

"हम तो आये थे शान्ति हेतु,

पर, तुम चाहो जो, वही सही।


"तुम भड़काना चाहते अनल

धरती का भाग जलाने को,

नरता के नव्य प्रसूनों को

चुन-चुन कर क्षार बनाने को।

पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग

पर आग नहीं धरने दूँगा,

जब तक जीवित हूँ, तुम्हें

बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।


"लो सुखी रहो, सारे पाण्डव

फिर एक बार वन जायेंगे,

इस बार, माँगने को अपना

वे स्वत्तव न वापस आयेंगे।

धरती की शान्ति बचाने को

आजीवन कष्ट सहेंगे वे,

नूतन प्रकाश फैलाने को

तप में मिल निरत रहेंगे वे।


शत लक्ष मानवों के सम्मुख

दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?

यदि शान्ति विश्व की बचती हो,

वन में बसने में दुख क्या है ?

सच है कि पाण्डूनन्दन वन में

सम्राट् नहीं कहलायेंगे,

पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी

वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।


"होकर कृतज्ञ आनेवाला युग

मस्तक उन्हें झुकायेगा,

नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति

संसार युगों तक गायेगा।

सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का

कर सकते, त्यागी होकर,

मानव-समाज का नयन मनुज

कर सकता वैरागी होकर।"


पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं

होता क्या ऐसा कहने से ?

प्रतिकार अनय का हो सकता।

क्या उसे मौन हो सहने से ?

क्या वही धर्म, लौ जिसकी

दो-एक मनों में जलती है।

या वह भी जो भावना सभी

के भीतर छिपी मचलती है।


सबकी पीड़ा के साथ व्यथा

अपने मन की जो जोड़ सके,

मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे

निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।

युगपुरूष वही सारे समाज का

विहित धर्मगुरू होता है,

सबके मन का जो अन्धकार

अपने प्रकाश से धोता है।


द्वापर की कथा बड़ी दारूण,

लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ?

नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी

कुछ और उसे आसान किया।

पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था,

वह आज निन्द्य-सा लगता है।

बस, इसी मन्दता के विकास का

भाव मनुज में जगता है।


धीमी कितनी गति है ? विकास

कितना अदृश्य हो चलता है ?

इस महावृक्ष में एक पत्र

सदियों के बाद निकलता है।

थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,

लगता है वहीं खड़े हैं हम।

है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से

कुछ बहुत बड़े हैं हम।


अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो

किटकिटा नखों से, दाँतों से,

या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित

वज्रीकृत हाथों से;

या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से

गोलों की वृष्टि करो,

आ जाय लक्ष्य में जो कोई,

निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।


ये तो साधन के भेद, किन्तु

भावों में तत्व नया क्या है ?

क्या खुली प्रेम आँख अधिक ?

भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ?

झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,

पशुता का झरना बाकी है;

बाहर-बाहर तन सँवर चुका,

मन अभी सँवरना बाकी है।


देवत्व अल्प, पशुता अथोर,

तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,

द्वापर के मन पर भी प्रसरित

थी यही, आज वाली, द्वाभा।

बस, इसी तरह, तब भी ऊपर

उठने को नर अकुलाता था,

पर पद-पद पर वासना-जाल में

उलझ-उलझ रह जाता था।


औ’ जिस प्रकार हम आज बेल-

बूटों के बीच खचित करके,

देते हैं रण को रम्य रूप 

विप्लवी उमंगों में भरके;

कहते, अनीतियों के विरूद्ध

जो युद्ध जगत में होता है,

वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का

बड़ा सलोना सोता है।


बस, इसी तरह, कहता होगा

द्वाभा-शासित द्वापर का नर,

निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,

है महामोक्ष का द्वार समर।

सत्य ही, समुन्नति के पथ पर

चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,

कहता है क्रान्ति उसे, जिसको

पहले कहता था धर्मयुद्ध।


सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग

तक जाने के सोपान लगे,

सद्गतिकामी नर-वीर खड्ग से

लिपट गँवाने प्राण लगे।

छा गया तिमिर का सघन जाल,

मुँद गये मनुज के ज्ञान-नेत्र,

द्वाभा की गिरा पुकार उठी,

"जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरूक्षेत्र !"


हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन

पर अबन्ध की जीत हुई,

कत्र्तव्यज्ञान पीछे छूटा,

आगे मानव की प्रीत हुई।

प्रेमातिरेक में केशव ने

प्रण भूल चक्र सन्धान किया,

भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से

अपना जीवन दान दिया।

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Aah se Upja Gaan
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