SHOW / EPISODE

Rashmirathi Dwitiya Sarg Part 1 रश्मीरथी द्वितीय सर्ग भाग १ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

Season 1 | Episode 2
13m | Sep 13, 2021

This part describes Aashram of Parshuram and his philosophy. A must-listen episode. Have worked hard for it. Have tried to use some new techniques. I hope you all like it.

2. द्वितीय सर्ग

शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, 

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर। 

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन, 

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन। 


आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं, 

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं। 

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन, 

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन। 


हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है, 

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है, 

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे? 

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे। 


बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं, 

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं। 

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर, 

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर। 


अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन, 

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण। 

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली, 

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।


श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, 

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है। 

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार? 

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार? 


आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को? 

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को? 

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है? 

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है? 


परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, 

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। 

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है, 

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है। 


किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? 

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला? 

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा, 

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा! 


मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, 

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। 

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का, 

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। 


हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, 

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर। 

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है, 

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।


कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है, 

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है, 

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं, 

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं। 


'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन, 

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण। 

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी, 

और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी। 


'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा, 

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा? 

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा, 

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा। 


'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ, 

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ। 

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी, 

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी। 


'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, 

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। 

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर? 

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर। 


'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों? 

जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों? 

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में, 

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।


खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे, 

इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे। 

और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है, 

राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है। 


'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की, 

डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की। 

औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को, 

परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को। 


'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों, 

और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों। 

रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें, 

बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें। 


'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले, 

भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले। 

ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है, 

और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है। 


'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है, 

ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है। 

कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके, 

धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके। 


'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है? 

यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है। 

चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की, 

जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!


'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है। 

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है। 

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय; 

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय। 


'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे, 

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे। 

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले। 

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले, 


'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी, 

कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी, 

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा, 

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा, 


'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी, 

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी। 

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को, 

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को। 


'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है, 

ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है। 

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो, 

हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो। 


'रोज कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है, 

इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है। 

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी, 

जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।


'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है, 

मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है। 

सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो, 

विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो। 


'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ, 

सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ। 

'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है, 

दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है। 


'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या, 

परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या? 

पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल, 

तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल। 


'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे, 

एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे। 

निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी, 

तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी? 


'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं, 

मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं। 

गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा? 

और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा? 


'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता, 

पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता। 

और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे, 

एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?


'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? 

कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ? 

धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान? 

जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान? 


'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो? 

सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? 

मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, 

चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं। 


'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर, 

कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर, 

तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है; 

नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है? 


'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, 

छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात! 

हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, 

जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।' 

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Aah se Upja Gaan
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