SHOW / EPISODE

Rashmirathi Shast Sarg part -2 रश्मीरथी षष्ठ सर्ग-भाग २ By Pandit Ramdhari Singh Dinkar Mohit Mishra

Season 1 | Episode 10
28m | Oct 3, 2021

भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।


पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी, 

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।


सेना समग्र हुकांर उठी,

‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।


सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।


झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।


प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।


सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।


"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।


"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण 

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।


बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।


‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?


‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"


केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।


एक ही वृम्त के को कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।


अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,

दोनों दिशि जयजयकार हुई।

दोनों पक्षों के वीरों पर,

मानो, भैरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र,

रूण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की 

धारा पशुओं के पग धोकर।


लेकिन, था कौन, हृदय जिसका,

कुछ भी यह देख दहलता था ?

थो कौन, नरों की लाशों पर,

जो नहीं पाँव धर चलता था ?

तन्वी करूणा की झलक झीन

किसको दिखलायी पड़ती थी ?

किसको कटकर मरनेवालों की

चीख सुनायी पड़ती थी ?


केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल वज्रायुध का प्रहार,

केवल विनाशकारी नत्र्तन,

केवल गर्जन, केवल पुकार।

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,

या उसके कौन विरूद्ध चला ?


था किया भीष्म पर पाण्डव ने,

जैसे छल-छद्मों से प्रहार,

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल,

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।


अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका 

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा ही दारूण कठोर,

देखता नहीं ज्यायान्-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।


सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,

दहक उठा शोकात्र्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,

तब महा लोम-हर्षक निश्चय,

‘कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँ मैं,

सौगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊँ मैं।’


तब कहते हैं अर्जुन के हित,

हो गया प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

माया की सहसा शाम हुई,

असमय दिनेश हो गये अस्त।

ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।


हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

औ‘ भूरिश्रवा अनशन करके,

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

सात्यकि ने मस्तक काट लिया,

जब था वह निश्चल, योग-निरत।


है वृथा धर्म का किसी समय,

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करूणा से कढ़ता धर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा का रण।

जीवन के परम ध्येय-सुख-को

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है ?


है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

जीवन भर चलने में है।

फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति

दीपक समान जलने में है।

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;

मिल जाते है पापी को भी।


इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित, साधन में है,

वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,

समझे मनुष्य संहारों को,

गूँथना चाहते वे, फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।


हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ?

बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्या ?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।


संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भला हो सकता है ?

कैसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है ?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।


मानेगा यह दंष्ट्री कराल 

विषधर भुजंग किसका यन्त्रण ?

पल-पल अति को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रण ?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,

संग्राम-भूमि में लाता है,

सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।


साधना को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

तब जो भी आते विघ्न रूप,

हो धर्म, शील या सदाचार,

एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद-प्रहार।


उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज़ कंकड़ो

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,

छोटी बातों का ध्यान करे ?


चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,

जानता नहीं, क्या करता है,

नीच पथ में है कौन ? पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को अन्तर

मानवता का फट जाता है।


वासना-वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ?

देखने हमें देगा वह क्यों,

करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?

जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,

माँड़ी बन कर छा जाता है

तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े

दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।


फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव

भी नहीं धर्म के साथ रहे ?

जो रंग युद्ध का है, उससे,

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख छुई शीश पर,

जय का तिलक लगाने को,

सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,

विजय-विन्दु तक जाने को।


इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी,

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?

था कौन सत्य-पथ पर डटकर,

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,

अपना नाम अमर करता ?


था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कँपता था ?

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था ?

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुज्जर,

थे विचर रहे पाण्डव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।


संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, 

सारे जीवन से छला हुआ,

राधेय पाण्डवों के ऊपर

दारूण अमर्ष से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।


संघटित या कि उनचास मरूत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूय आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवान,

या महाकाल बन टूटा हो 

भू पर ऊपर से गरूत्मान।


बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरूष की

कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज-दराज वीरों की भी 

छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये

गजराजों के भी पाँव उखड़।


जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पाण्डव-सेना का हृास देख

केशव का वदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्या

सबके विपन्न आज ही प्राण ?

सत्य ही, नहीं क्या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?


"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"

राधेय गरजता था क्षण-क्षण।

"करता क्यों नही प्रकट होकर, 

अपने कराल प्रतिभट से रण ?

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी 

रणकला निबट रह जायेगी ?

या किसी वीर पर भी अपना,

वह चमत्कार दिखलायेगी ?


"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,

मैं उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े,

व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,

दे मुझे जन्म का लाभ और

साहस हो तो खुद भी पाये।"


पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,

शिष्य को बचाये फिरते थे।

चिन्ता थी, एकघ्नी कराल,

यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,

पार्थ का निधन होगा, किस्मत,

पाण्डव-समाज की फूटेगी।


नटनागर ने इसलिए, युक्ति का

नया योग सन्धान किया,

एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच

का हरि ने आह्वान किया।

बोले, "बेटा ! क्या देख रहा ?

हाथ से विजय जाने पर है,

अब सबका भाग्य एक तेरे

कुछ करतब दिखलाने पर है।


"यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि

कैस कराल झड़ लाती है ?

गो के समान पाण्डव-सेना

भय-विकल भागती जाती है।

तिल पर भी भूिम न कहीं खड़े

हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण-भर,

सारी रण-भू पर बरस रहे

एक ही कर्ण के बाण प्रखर।


"यदि इसी भाँति सब लोग

मृत्यु के घाट उतरते जायेंगे,

कल प्रात कौन सेना लेकर

पाण्डव संगर में आयेंगे ?

है विपद् की घड़ी,

कर्ण का निर्भय, गाढ़, प्रहार रोक।

बेटा ! जैसे भी बने, पाण्डवी

सेना का संहार रोक।"


फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत,

ज्यों उठे सिन्धु में प्रलय-ज्वार,

कूदा रण में त्यों महाघोर

गर्जन कर दानव किमाकार।

सत्य ही, असुर के आते ही

रण का वह क्रम टूटने लगा,

कौरवी अनी भयभीत हुई;

धीरज उसका छूटने लगा।


है कथा, दानवों के कर में

थे बहुत-बहुत साधन कठोर,

कुछ ऐसे भी, जिनपर, मनुष्य का

चल पाता था नहीं जोर।

उन अगम साधनों के मारे

कौरव सेना चिग्घार उठी,

ले नाम कर्ण का बार-बार,

व्याकुल कर हाहाकार उठी।


लेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत,

अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण,

मन-ही-मन था हो रहा स्वयं,

इस रण से कुछ विस्मित, विवर्ण।

बाणों से तिल-भर भी अबिद्ध,

था कहीं नहीं दानव का तन;

पर, हुआ जा रहा था वह पशु,

पल-पल कुछ और अधिक भीषण।


जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध, 

हो सकी महादानव की गति,

सारी सेना को विकल देख,

बोला कर्ण से स्वयं कुरूपति,

"क्या देख रहे हो सखे ! दस्यु

ऐसे क्या कभी मरेगा यह ?

दो घड़ी और जो देर हुई,

सबका संहार करेगा यह।


"हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का,

अचिर किसी विधि त्राण करो।

अब नहीं अन्य गति; आँख मूँद,

एकघ्नी का सन्धान करो।

अरि का मस्तक है दूर, अभी

अपनों के शीश बचाओ तो,

जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,

उसमें से हमें छुड़ाओ तो।"


सुन सहम उठा राधेय, मित्र की

ओर फेर निज चकित नयन,

झुक गया विवशता में कुरूपति का

अपराधी, कातर आनन।

मन-ही-मन बोला कर्ण, "पार्थ !

तू वय का बड़ा बली निकला,

या यह कि आज फिर एक बार,

मेरा ही भाग्य छली निकला।"


रहता आया था मुदित कर्ण

जिसका अजेय सम्बल लेकर,

था किया प्राप्त जिसको उसने,

इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर,

जिसकी करालता में जय का,

विश्वास अभय हो पलता था,

केवल अर्जुन के लिए उसे,

राधेय जुगाये चलता था।


वह काल-सर्पिणी की जिह्वा,

वह अटल मृत्यु की सगी स्वसा,

घातकता की वाहिनी, शक्ति

यम की प्रचण्ड, वह अनल-रसा,

लपलपा आग-सी एकघ्नी

तूणीर छोड़ बाहर आयी,

चाँदनी मन्द पड़ गयी, समर में

दाहक उज्जवलता छायी।


कर्ण ने भाग्य को ठोंक उसे,

आखिर दानव पर छोड़ दिया,

विह्ल हो कुरूपति को विलोक,

फिर किसी ओर मुख मोड़ लिया।

उस असुर-प्राण को बेध, दृष्टि

सबकी क्षर भर त्रासित करके,

एकघ्नी ऊपर लीन हुई,

अम्बर को उद्धभासित करके।


पा धमक, धरा धँस उछल पड़ी,

ज्यों गिरा दस्यु पर्वताकार,

"हा ! हा !" की चारों ओर मची,

पाण्डव दल में व्याकुल पुकार।

नरवीर युधिष्ठिर, नकुल, भीम

रह सके कहीं कोई न धीर,

जो जहाँ खड़े थे, लगे वहीं

करने कातर क्रन्दन गंभीर।


सारी सेना थी चीख रही,

सब लोग व्यग्र बिलखाते थे;

पर बड़ी विलक्षण बात !

हँसी नटनागर रोक न पाते थे।

टल गयी विपद् कोई सिर से,

या मिली कहीं मन-ही-मन जय,

क्या हुई बात ? क्या देख हुए

केशव इस तरह विगत-संशय ?


लेकिन समर को जीत कर,

निज वाहिनी को प्रीत कर,

वलयित गहन गुन्जार से,

पूजित परम जयकार से,

राधेग संगर से चला, मन में कहीं खोया हुआ,

जय-घोष की झंकार से आगे कहीं सोया हुआ


हारी हुई पाण्डव-चमू में हँस रहे भगवान् थे,

पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए-से प्राण थे

क्या, सत्य ही, जय के लिए केवल नहीं बल चाहिए

कुछ बुद्धि का भी घात; कुछ छल-छद्म-कौशल चाहिए


क्या भाग्य का आघात है ;!

कैसी अनोखी बात है ;?

मोती छिपे आते किसी के आँसुओं के तार में,

हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।


मगर, यह कर्ण की जीवन-कथा है,

नियति का, भाग्य का इंगित वृथा है। 

मुसीबत को नहीं जो झेल सकता,

निराशा से नहीं जो खेल सकता,

पुरूष क्या, श्रृंखला को तोड़ करके,

चले आगे नहीं जो जोर करके ?

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Aah se Upja Gaan
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